दादी
मेरे घर के पिछले आंगन में
स्नेह पड़ा होगा बिखरा
खाना खाने की दादी की अर्जी
ना खाने का का मेरा नखरा
फिर दादी के बहुत मनाने पर
सौ वादे कसम दिलाने पर
कुछ टुकड़े मैंने खाए थे
कुछ आंगन में वहीँ गिराए थे
अन्न देवता कह कर दादी ने
माफ़ी मांग उठाये थे
उस आंगन में है एक ऐसा कोना
जहाँ सूखता था दादी का
फटा पुराना नर्म बिछोना
उसी बिछोने में दुबका कर
अपने आँचल तले छुपा कर
दादी ने परियों के महल घुमाये थे
ईश्वर के नाम गिनाये थे
उस आंगन की महिमा न्यारी
वहां होगी एक तुलसी की क्यारी
उस तुलसी पर दादी ने बांधे
सुख उम्मीदों के धागे
उन धागों में दादी ने तुलसी क्या
कान्हा भी बांध बिठाये थे
श्रद्धा के बीज उगाये थे
लौटा दो वो आंगन, तुलसी
रुखी रोटी स्वप्न बिछोना
माटी की गुड़िया सा बचपन
आंटे का सा नर्म खिलौना.
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ