गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

दादी

मेरे घर के पिछले आंगन में 
              स्नेह पड़ा होगा बिखरा
खाना खाने की दादी की अर्जी 
              ना खाने का का मेरा नखरा 
फिर दादी के बहुत मनाने पर 
             सौ वादे कसम दिलाने पर 
कुछ टुकड़े मैंने खाए थे    
             कुछ आंगन में वहीँ गिराए थे 
अन्न देवता कह कर दादी ने 
             माफ़ी मांग उठाये थे 
उस आंगन में है एक ऐसा कोना 
            जहाँ सूखता था  दादी का
फटा पुराना नर्म  बिछोना 
            उसी बिछोने में दुबका कर 
अपने आँचल तले छुपा कर 
            दादी ने परियों के महल घुमाये थे 
ईश्वर के नाम गिनाये थे 
उस आंगन की महिमा न्यारी 
           वहां होगी एक तुलसी की क्यारी 
उस तुलसी पर दादी ने बांधे
          सुख उम्मीदों के धागे 
उन धागों में दादी ने तुलसी क्या 
          कान्हा भी बांध बिठाये थे 
श्रद्धा के बीज उगाये थे 
          लौटा दो वो आंगन, तुलसी 
रुखी रोटी स्वप्न बिछोना 
         माटी की गुड़िया सा बचपन 
आंटे का सा नर्म खिलौना.

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