शुक्रवार, 30 मार्च 2012

नवरात्रे का कुण्डलिनि जागरन विषयक महत्व - नवदेवियुन और साधन विषयक महात्वपुर्न बात




नौ अवतार

मां दुर्गा के नौ रुप हिंदू धर्म शास्त्र में माने गए हैं।

शैलपुत्री (मूलाधार चक्र)

नवरात्र का पहला दिन शैलपुत्री की उपासना का माना जाता है। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है। पूर्व काल में इनका जन्म दक्षकन्या सती के रूप में हुआ था और शिव से इनका विवाह हुआ था। शैल पुत्री के रूप में इन्हें पार्वती या उमा भी कहा जाता है।

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखरां।

वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीं॥

ब्रह्मचारिणी (स्वाधिष्ठान चक्र)

ब्रह्मा का अर्थ है तपस्या। तप का आचरण करने वाली मां भगवती को ब्रह्मचारिणी कहा जाता है। यह दुर्गा का दूसरा रूप है। इस स्वरूप की उपासना से तप, त्याग, सदाचार, वैराग्य तथा संयम की वृद्धि होती है।

दधाना करपद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलू।

देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

चन्द्रघण्टा (मणिपुर चक्र)

मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम ‘चन्द्रघंटा’ है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह की उपासना की जाती है। इनका यह रूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनकी कृपा से समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं।

पिण्डजप्रवरारूढा चन्दकोपास्त्रकैर्युता।

प्रसादं तनुते मह्मं चन्द्रघण्देति विश्रुता॥

कूष्माण्डा (अनाहत चक्र)

मां दुर्गा की चौथी शक्ति का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मंद हंसी से ब्रह्माण को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है। यह सृष्टि की आद्य-शक्ति है। मां कूष्माण्डा के स्वरूप को ध्यान में रखकर आराधना करने से समस्त रोग और शोक नष्ट हो जाते हैं।

सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।

दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥
स्कन्दमाता (विशुद्ध चक्र)

शिव पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) की जननी होने के कारण दुर्गा की पांचवीं शक्ति को स्कंदमाता कहा जाता है। मां स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। सूर्यमण्डल की अधिष्ठात्री देवी होने से, इसका उपासक अलौकिक तेज और कांति से संपन्न हो जाता है।

सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।

शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥

कात्यायनी (आज्ञाचक्र)

माता दुर्गा के छटे स्वरूप का नाम कात्यायनी देवी है। महर्षि कात्यायन के घर पुत्री के रूप में जन्म देने पर इनका यह नाम पड़ा। इन्होंने ही देवी अंबा के रूप में महिषासुर का वध किया था। मां कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को सरलता से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना।

कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानवघातिनी॥

कालरात्रि (भानु चक्र)

माता दुर्गा की सातवीं शक्ति ‘कालरात्रि’ के नाम से जानी जाती है। मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में भयानक है, परंतु सदैव शुभ फल देने वाला है। इसी कारण इन्हें शुभंकरी भी कहते हैं। इसके स्वरूप को अग्नि, जल, वायु, जंतु, शत्रु, रात्रि और भूत-प्रेम का भय नहीं सताता।

एकवेणी जपाकर्णपूर नग्ना खरास्थिता।

लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥

वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।

वर्धनमुर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
महागौरी (सोमचक्र)
मां दुर्गा की आठवीं शक्ति ‘महागौरी’ कहलाती है। इन्होंने पार्वती के रूप में भगवान शिव का वरण किया था। इनकी शक्ति अमोघ और शीघ्र फलदायिनी है। इनकी भक्ति से भक्त के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

श्र्वेते वृषे समारूढा श्र्वेताम्बरधरा शुचिः।

महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥
सिद्धिदात्री (निर्वाण चक्र)

मां दुर्गा का नवम स्वरूप भगवती ‘सिद्धियात्री’ है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। देवी पुराण के अनुसार, भगवान शिव ने इनकी आराधना कर आठों सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की कृपा से भगवान शिव का लोक में ‘अर्द्धनारीश्वर’ स्वरूप प्रसिद्ध हुआ था।

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।

सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धीदा सिद्धीदायिनी॥
 

सोलह संस्कार

आप जानते हैं, सोलह संस्कार क्यों बनाए गए!
हमारे पूर्वजों ने हर काम बहुत सोच-समझकर किया है। जैसे जीवन का चार आश्रम में विभाजन, समाज का चार वर्णो में वर्गीकरण, और सोलह संस्कार को अनिवार्य किया जाना दरअसल हमारे यहां हर परंपरा बनाने के पीछे कोई गहरी सोच छूपी है। सोलह संस्कार बनाने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की गहरी सोच थी तो आइए जानते हैं कि जीवन में इन सोलह संस्कारो को अनिवार्य बनाए जाने का क्या कारण था?
गर्भाधान संस्कार- यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस
पुंसवन संस्कार- यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।
जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं।
नामकरण संस्कार- जन्म के बाद 11वें या सौवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है।
निष्क्रमण संस्कार- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
मुंडन संस्कार- बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।
कर्णवेध संस्कार- इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है।
उपनयन संस्कार- उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार।आज भी यह परंपरा है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्म, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं।
विद्यारंभ संस्कार- जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे।
केशांत संस्कार- केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें।
समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार हैं।
विवाह संस्कार - यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
अंत्येष्टी संस्कार - अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है।

गुरुवार, 22 मार्च 2012

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि:-


नवरात्र घट स्थापना .........................

नवरात्र का श्रीगणेश शुक्ल पतिपदा को प्रात:काल के शुभमहूर्त में घट स्थापना से होता है। घट स्थापना हेतु मिट्टी अथवा साधना के अनुकूल धातु का कलश लेकर उसमे पूर्ण रूप से जल एवं गंगाजल भर कर कलश के उपर (मुँह पर) नारियल(छिलका युक्त) को लाल वस्त्र/चुनरी से लपेट कर अशोक वृक्ष या आम के पाँच पत्तो सहित रखना चाहिए। पवित्र मिट्टी में जौ के दाने तथा जल मिलाकर वेदिका का निर्माण के पश्चात उसके उपर कलश स्थापित करें। स्थापित घट पर वरूण देव का आह्वान कर पूजन सम्पन्न करना चाहिए। फिर रोली से स्वास्तिक बनाकर अक्षत एवं पुष्प अर्पण करना चाहिए।

कुल्हड़ में जौ बोना..................

नवरात्र के अवसर पर नवरात्रि करने वाले व्यक्ति विशेष शुद्ध मिट्टी मे, मिट्टी के किसी पात्र में जौ बो देते है। दो दिनो के बाद उसमे अंकुर फुट जाते है। यह काफी शुभ मानी जाती है।

मूर्ति या तसवीर स्थापना....................

माँ दुर्गा, श्री राम, श्री कृष्ण अथवा हनुमान जी की मूर्ती या तसवीर को लकड़ी की चौकी पर लाल अथवा पीले वस्त्र(अपनी सुविधानुसार) के उपर स्थापित करना चाहिए। जल से स्नान के बाद, मौली चढ़ाते हुए, रोली अक्षत(बिना टूटा हुआ चावल), धूप दीप एवं नैवेध से पूजा अर्चना करना चाहिए।

अखण्ड ज्योति..................

नवरात्र के दौरान लगातार नौ दिनो तक अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित की जाती है। किंतु यह आपकी इच्छा एवं सुविधा पर है। आप केवल पूजा के दौरान ही सिर्फ दीपक जला सकते है।

आसन:-

लाल अथवा सफेद आसन पूरब की ओर बैठकर नवरात्रि करने वाले विशेष को पूजा, मंत्र जप, हवन एवं अनुष्ठान करना चाहिए।

नवरात्र पाठ:-

माँ दुर्गा की साधना के लिए श्री दुर्गा सप्तशती का पूर्ण पाठ अर्गला, कवच, कीलक सहित करना चाहिए। श्री राम के उपासक को ‘राम रक्षा स्त्रोत’, श्री कृष्ण के उपासक को ‘भगवद गीता’ एवं हनुमान उपासक को‘सुन्दरकाण्ड’ आदि का पाठ करना चाहिए।

भोगप्रसाद:- प्रतिदिन देवी एवं देवताओं को श्रद्धा अनुसार विशेष अन्य खाद्द्य पदार्थो के अलावा हलुए का भोग जरूर चढ़ाना चाहिए।

कुलदेवी का पूजन:- हर परिवार मे मान्यता अनुसार जो भी कुलदेवी है उनका श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा अर्चना करना चाहिए।

विसर्जन:- विजयादशमी के दिन समस्त पूजा हवन इत्यादि सामग्री को किसी नदी या जलाशय में विसर्जन करना चाहिए।

पूजा सामग्री:- कुंकुम, सिन्दुर, सुपारी, चावल, पुष्प, इलायची, लौग, पान, दुध, घी, शहद, बिल्वपत्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, इत्र, चौकी, फल, दीप, नैवैध(मिठाई), नारियल आदि।

मंत्र सहित पूजा विधि:- स्वयं को शुद्ध करने के लिए बायें हाथ मे जल लेकर, उसे दाहिने हाथ से ढ़क लें। मंत्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें। 

“ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेत पुंडरीकाक्षं स: बाह्य अभ्यंतर: शुचि॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्ष: पुनातु पुण्डरीकाक्ष पुनातु॥“

आचमन:- तीन बार वाणी, मन व अंत:करण की शुद्धि के लिए चम्मच से जल का आचमन करें। हर एक मंत्र के साथ एक आचमन किया जाना चाहिए।

ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐ अमृताविधानमसि स्वाहा।
ॐ सत्यं यश: श्रीमंयी श्री: श्रयतां स्वाहा।

प्राणायाम:- श्वास को धीमी गति से भीतर गहरी खींचकर थोड़ा रोकना एवं पुन: धीरे-धीरे निकालना प्राणायाम कहलाता है। श्वास खीचते समय यह भावना करे किं प्राण शक्ति एवं श्रेष्ठता सॉस के द्वारा आ रही है एवं छोड़ते समय यह भावना करे की समस्त दुर्गण-दुष्प्रवृतियां, बुरे विचार, श्वास के साथ बाहर निकल रहे है। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के उपरान्त करें:

ॐ भू: ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह:।
ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम।
ॐ तत्सवितुर्ररेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात।
ॐ आपोज्योतिरसोअमृतं बह्मभुर्भुव स्व: ॐ।


गणपति पूजन:- लकड़ी के पट्टे या चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर एक थाली रखें। इस थाली में कुंकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर उस पर पुष्प आसन लगाकर गण अपति की प्रतिमा या फोटो(तस्वीर) स्थापित कर दें या सुपारी पर लाल मौली बांधकर गणेश के रूप में स्थापित करना चाहिए। अब अक्षत, लाल पुष्प(गुलाब), दूर्वा(दुवी) एवं नेवैध गणेश जी पर चढ़ाना चाहिए। जल छोड़ने के पश्चात निम्न मंत्र का 21 बार जप करना चाहिए:-

“ॐ गं गणपतये नम:”

मंत्रोच्चारण के पश्चात अपनी मनोकामना पूर्ती हेतु निम्न मंत्र से प्रार्थना करें:-

विध्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय।
लम्बोदराय सकलाय जगद्विताय॥
नागाननाय श्रुति यज्ञ विभूषिताय।
गौरी सुताय गण नाथ नमो नमस्ते॥
भक्तार्त्तिनाशन पराय गणेश्वराय।
सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय॥
विद्याधराय विकटाय च वामनाय।
भक्त प्रसन्न वरदाय नमो नमस्ते॥
संकल्प:- दाहिने हाथ मे जल, कुंकुम, पुष्प, चावल साथ मे ले

“ॐ विष्णु र्विष्णु: श्रीमद्भगवतो विष्णोराज्ञाया प्रवर्तमानस्य, अद्य, श्रीबह्मणो द्वितीय प्ररार्द्धे श्वेत वाराहकल्पे जम्बूदीपे भरत खण्डे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते, मासानां मासोत्तमेमासे (अमुक) मासे (अमुक) पक्षे (अमुक) तिथौ (अमुक) वासरे (अपने गोत्र का उच्चारण करें) गोत्रोत्पन्न: (अपने नाम का उच्चारण करें) नामा: अहं (सपरिवार/सपत्नीक) सत्प्रवृतिसंवर्धानाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याण्य, ………..(अपनी कामना का उच्चारण करें) कामना सिद्दयर्थे दुर्गा पूजन विद्यानाम तथा साधनाम करिष्ये।“

जल को भूमि पर छोड़ दे। अगर कलश स्थापित करना चाहते है तो अब इसी चौकी पर स्वास्तिक बनाकर बाये हाथ की ओर कोने में कलश(जलयुक्त) स्थापित करें। स्वास्तिक पर कुकंम, अक्षत, पुष्प आदि अर्पित करते हुए कलश स्थापित करें। इस कलश में एक सुपारी कुछ सिक्के, दूब, हल्दी की एक गांठ डालकर, एक नारियल पर स्वस्तिक बनाकर उसके उपर लाल वस्त्र लपेटकर मौली बॉधने के बाद कलश पर स्थापित कर दें। जल का छींटा देकर, कुंकम, अक्षत, पुष्प आदि से नारियल की पूजा करे। वरूण देव को स्मरण कर प्रणाम करे। फिर पुरब, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण में(कलश मे) बिन्दी लगाए।

दुर्गा सप्तशती मंत्र :

शारदीय नवरात्र आदिशक्ति की पूजा-उपासना का महापर्व होता है, नवरात्र में पूजा के अवसर पर दुर्गासप्तशती का पाठ श्रवण करने से देवी अत्यन्त प्रसन्न होती हैं. सप्तशती का पाठ करने पर उसका सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है. श्रीदुर्गासप्तशती, भगवती दुर्गा का ही स्वरूप है. इस पुस्तक का पाठ करने से पूर्व इस मंत्र द्वारा पंचोपचारपूजन करें-

नमोदेव्यैमहादेव्यैशिवायैसततंनम:। नम: प्रकृत्यैभद्रायैनियता:प्रणता:स्मताम्॥

यदि दुर्गासप्तशती का पाठ करने में असमर्थ हों तो सप्तश्लोकी दुर्गा को पढें. इन सात श्लोकों में सप्तशती का संपूर्ण सार समाहित होता है.

अथ सप्तश्लोकी दुर्गा

शिव उवाच :

देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी ।

कलौ कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः ॥

देव्युवाच :

श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्ट्साधनम् ।

मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते ॥

विनियोग :

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ॠषिः, अनुष्टुप

छन्दः, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवताः, श्री दुर्गाप्रीत्यथं

सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ।

1 – ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥

2 – दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः

स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या

सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

3 – सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।

शरण्ये त्र्यंम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ३ ॥

4 – शरणागतदीनार्तपरित्राणे ।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ४ ॥

5 – सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते ॥ ५ ॥

6 – रोगानशेषानपहंसि तुष्टा

रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।

त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां

7 – त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्र्यन्ति ॥ ६ ॥

सर्वबाधाप्रश्मनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि ।

एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥

॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्ण ॥

नवरात्रके प्रथम दिन कलश (घट) की स्थापना के समय देवी का आवाहन इस प्रकार करें. भक्त प्राय: पूरे नवरात्र उपवास रखते हैं. सम्पूर्ण नवरात्रव्रत के पालन में असमर्थ लोगों के लिए सप्तरात्र,पंचरात्र,युग्मरात्रऔर एकरात्रव्रत का विधान भी है. प्रतिपदा से सप्तमी तक उपवास रखने से सप्तरात्र-व्रत का अनुष्ठान होता है. अष्टमी के दिन माता को हलुवा और चने का भोग लगाकर कुंवारी कन्याओं को खिलाते हैं तथा अन्त में स्वयं प्रसाद ग्रहण करके व्रत का पारण (पूर्ण) करते हैं.

नवरात्रके नौ दिन साधना करने वाले साधक प्रतिपदा तिथि के दिन शैलपुत्री की, द्वितीया में ब्रह्मचारिणी, तृतीया में चंद्रघण्टा, चतुर्थी में कूष्माण्डा, पंचमी में स्कन्दमाता, षष्ठी में कात्यायनी, सप्तमी में कालरात्रि, अष्टमी में महागौरी तथा नवमी में सिद्धिदात्री की पूजा करते हैं. तथा दुर्गा जी के 108 नामों को मंत्र रूप में उसका अधिकाधिक जप करें.

अब एक दूसरी स्वच्छ थाली में स्वस्तिक बनाकर उस पर पुष्प का आसन लगाकर दुर्गा प्रतिमा या तस्वीर या यंत्र को स्थापित करें। अब निम्न प्रकार दुर्गा पूजन करे:-

स्नानार्थ जलं समर्पयामि (जल से स्नान कराए)
स्नानान्ते पुनराचमनीयं जल समर्पयामि (जल चढ़ाए)
दुग्ध स्नानं समर्पयामि (दुध से स्नान कराए)
दधि स्नानं समर्पयामि (दही से स्नान कराए)
घृतस्नानं समर्पयामि (घी से स्नान कराए)
मधुस्नानं समर्पयामि (शहद से स्नान कराए)
शर्करा स्नानं समर्पयामि (शक्कर से स्नान कराए)
पंचामृत स्नानं समर्पयामि (पंचामृत से स्नान कराए)
गन्धोदक स्नानं समर्पयामि (चन्दन एवं इत्र से सुवासित जल से स्नान करावे)
शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि (जल से पुन: स्नान कराए)
यज्ञोपवीतं समर्पयामि (यज्ञोपवीत चढ़ाए)
चन्दनं समर्पयामि (चंदन चढ़ाए)
कुकंम समर्पयामि (कुकंम चढ़ाए)
सुन्दूरं समर्पयामि (सिन्दुर चढ़ाए)
बिल्वपत्रै समर्पयामि (विल्व पत्र चढ़ाए)
पुष्पमाला समर्पयामि (पुष्पमाला चढ़ाए)
धूपमाघ्रापयामि (धूप दिखाए)
दीपं दर्शयामि (दीपक दिखाए व हाथ धो लें)
नैवेध निवेद्यामि (नेवैध चढ़ाए(निवेदित) करे)
ऋतु फलानि समर्पयामि (फल जो इस ऋतु में उपलब्ध हो चढ़ाए)
ताम्बूलं समर्पयामि (लौंग, इलायची एवं सुपारी युक्त पान चढ़ाए)
दक्षिणा समर्पयामि (दक्षिणा चढ़ाए)

इसके बाद कर्पूर अथवा रूई की बाती जलाकर आरती करे।

आरती के नियम:- प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी मन मर्जी आरती उतारता रहता है। विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारना चाहिए। चार बार चरणो पर से, दो बार नाभि पर से, एकबार मुख पर से तथा सात बार पूरे शरीर पर से। आरती की बत्तियाँ 1, 5, 7 अर्थात विषम संख्या में ही बत्तियाँ बनाकर आरती की जानी चाहिए।

दुर्गा जी की आरती:- दुर्गा आरती (DURGA DEVI AARTHI FULL)

प्रदक्षिणा:-

“यानि कानि च पापानी जन्मान्तर कृतानि च।
तानी सर्वानि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे॥
प्रदक्षिणा समर्पयामि।“

प्रदक्षिणा करें (अगर स्थान न हो तो आसन पर खड़े-खड़े ही स्थान पर घूमे)

क्षमा प्रार्थना:- पुष्प सर्मपित कर देवी को निम्न मंत्र से प्रणाम करे। 

“नमो दैव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृतयै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम॥
या देवी सर्व भूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

ततपश्चात देवी से क्षमा प्रार्थना करे कि जाने अनजाने में कोई गलती या न्यूनता-अधिकता यदि पूजा में हो गई हो तो वे क्षमा करें। इस पूजन के पश्चात अपने संकल्प मे कहे हुए मनोकामना सिद्धि हेतु निम्न मंत्र का यथाशक्ति श्रद्धा अनुसार 9 दिन तक जप करें:-

”ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥“

इस मंत्र के बाद दुर्गा सप्तशती के सभी अध्यायो का पाठ 9 दिन मे पूर्ण करें।

नवरात्री की समाप्ति पर यदि कलश स्थापना की हो तो इसके जल को सारे घर मे छिड़क दें। इस प्रकार पूजा सम्पन्न होती है। यदि कोई व्यक्ति विशेष उपरांकित विधि का पालन करने मे असमर्थ है तो नवरात्रि के दौरान दुर्गा चालीसा का पाठ करें।

दुर्गा सप्तशती की महिमा

मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्माजी ने मनुष्यों की रक्षा के लिए परमगोपनीय, कल्याणकारी देवी कवच के पाठ आर देवी के नौ रूपों की आराधना का विधान बताया है, जिन्हें नव दुर्गा कहा जाता है। आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक देवी के इन रूपों की साधना उपासना से वांछित फल की प्राप्ति होती है।

श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ मनोरथ सिद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि यह कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी है। यह श्री मार्कण्डेय पुराण का अंश है। यह देवी माहात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्तोत्र एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत्‌ पाठ से वांछित फल की प्राप्ति होती है। 

रविवार, 18 मार्च 2012

दाँत की सफाई तथा मजबूतीः



पहला प्रयोगः 
नींबू के छिलकों पर थोड़ा-सा सरसों का तेल डालकर दाँत एवं मसूढ़ों को घिसने से दाँत सफेद एवं चमकदार होते हैं, मसूढ़े मजबूत होते हैं, हर प्रकार के जीवाणुओं का नाश होता है तथा पायरिया आदि रोगों से बचाव होता है।

मशीनों से दाँत की सफाई इतनी हितकारी नहीं है।

दूसरा प्रयोगः
बड़ और करंज की दातौन करने से दाँत मजबूत होते हैं।

तीसरा प्रयोगः
जामफल के पत्तों को अच्छी तरह चबाकर उसका रस मुँह में फैलाकर, थोड़ी देर तक रखकर थूक देने से अथवा जामफल की छाल को पानी में उबालकर उसके कुल्ले करने से दाँत के दर्द, मसूढ़ों में से खून आना, दाँत की दुर्गन्ध आदि में लाभ होता है।

दाढ़ का दर्दः
कपूर की गोली अथवा लौंग या सरसों के तेल या बड़ के दूध में भिगोया हुआ रूई का फाहा अथवा घी में तली हुई हींग का टुकड़ा दाढ़ के नीचे रखने से दर्द में आराम मिलता है।

मसूढ़ों की सूजनः

जामुन के वृक्ष की छाल के काढ़े के गरारे करने से दाँतों के मसूढ़ों की सूजन मिटती है व हिलते दाँत मजबूत होते हैं।

दाँत खटा जाने परः

तिल के तेल में पीसा हुआ नमक मिलाकर उँगली से दाँतों को रोज घिसने से दाँत खटा जाने की पीड़ा दूर हो जायगी।

दाँत क्षत-विक्षत अवस्था में-

तिल के तेल से हाथ की उँगली से दिन में तीन बार दाँतों एवं मसूढ़ों की मालिश करें। 7 दिन बाद बड़ की दातौन को चबाकर मुलायम बनने पर घिसें। तिल के तेल का कुल्ला मुँह में भरकर जितनी देर रख सके उतनी देर रखें। मुँह आँतों का आयना है अतः पेट की सफाई के लिए छोटी हरड़ चबाकर खायें।

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रक्तस्राव बंद करने हेतुः
नमक के पानी के कुल्ले करने तथा कत्थे अथवा हल्दी का चूर्ण लगाने से गिरे हुए दाँत का रक्तस्राव बंद होता है।

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पायरियाः

पहला प्रयोगः
नीम के पत्तों की राख में कोयले का चूरा तथा कपूर मिलाकर रोज रात को लगाकर सोने से पायरिया में लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः
सरसों के तेल में सेंधा नमक मिलाकर दाँतों पर लगाने से दाँतों से निकलती दुर्गन्ध एवं रक्त बंद होकर दाँत मजबूत होते हैं तथा पायरिया जड़मूल से निकल जाता है। साथ में त्रिफला गुग्गल की 1 से 3 गोली दिन में तीन बार लें व रात्रि में 1 से 3 ग्राम त्रिफला का सेवन करें।

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दाँत-दाढ़ के दर्द पर मंत्र प्रयोगः

ॐ नमो आदेश गुरु का... बन में ब्याई अंजनी...जिन जाया हनुमंत.... कीड़ा मकड़ा माकड़ा.... ये तीनों भस्मंत.... गुरु की शक्ति.... मेरी शक्ति.... फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।

एक नीम की टहनी लेकर दर्द के स्थान पर छुआते हुए सात बार इस मंत्र को श्रद्धा से जपें। ऐसा करने से दाँत या दाढ़ का दर्द समाप्त हो जायगा और पीड़ित व्यक्ति आराम का अनुभव करेगा।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दाँतों की सुरक्षा हेतुः
भोजन के पश्चात् अथवा अन्य किसी भी पदार्थ को खाने के बाद गिनकर 11 बार कुल्ला जरूर करना चाहिए। गर्म वस्तु के सेवन के तुरंत पश्चात् ठण्डी वस्तु का सेवन न करें।

मसूढ़े के रोगी को प्याज, खटाई, लाल मिर्च एवं मीठे पदार्थों का सेवन बंद कर देना चाहिए।
 

त्वचा की कान्तिः

पहला प्रयोगः नींबू का रस एवं छाछ समान मात्रा में मिलाकर लगाने से धूप के कारण काला हुआ चेहरा निखर उठता है।

दूसरा प्रयोगः राई के तेल में चने का आटा और हल्दी मिलाकर लगाने से त्वचा कान्तियुक्त होती है।

तीसरा प्रयोगः मक्खन एवं हल्दी का मिश्रण करके रात्रि को सोते समय मुँह पर लगाने से मुँह कान्तिवान एवं निरोगी होता है।

चौथा प्रयोगः चेहरे पर झुर्रियाँ हों तो दो चम्मच ग्लिसरीन में आधा चम्मच गुलाब जल एवं नींबू के रस की बूँदें मिलाकर मुँह पर रात्रि को लगायें। सुबह उठकर ठण्डे पानी से मुँह धो डालें। त्वचा का रंग निखरकर झुर्रियाँ कम हो जायेंगी।

पाँचवाँ प्रयोगः तुलसी के पत्तों को पीसकर लुगदी बनाकर मुँह पर लगाने से मुँहासों के दाग धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।

छठा प्रयोगः एक कप दूध को उबालें। जब दूध गाढ़ा हो जाये तब उसे नीचे उतार लें। उसमें एक नींबू निचोड़ दें तथा हिलाते रहें जिससे दूध व नींबू का रस एकरस हो जाय। फिर ठण्डा होने के लिए रख दें। रात को सोते समय इसे चेहरे पर लगाकर मसलें। चाहें तो एक-डेढ़ घण्टे के अन्दर चेहरा धो सकते हैं या रात भर ऐसा रहने दें। सुबह में चेहरा धो लें। इस प्रयोग से मुँहासे ठीक होते हैं। चेहरे की त्वचा कान्तिमय बनती है।

मुख की दुर्गन्धः धनिया चबाने से मुख की दुर्गन्ध दूर होती है।

त्वचा की ताजगीः
पहला प्रयोगः दूध एवं अरण्डी का तेल समान मात्रा में मिलाकर शरीर पर मालिश करने से त्वचा चमकदार होती है।

दूसरा प्रयोगः जौ के आटे को दही में मिलाकर पेस्ट बनाकर चेहरे एवं गले पर लगायें। 15 मिनट बाद गर्म पानी से साफ कर दें। इससे त्वचा में सफेदी आती है तथा त्वचा मुलायम हो जाती है।

शुष्क त्वचाः
पहला प्रयोगः हाथ-पैर की त्वचा फटने पर बड़ का दूध लगाने से शीघ्र आराम होता है।

दूसरा प्रयोगः आँवले के तेल में नींबू का रस समान मात्रा में मिलाकर लगाने से त्वचा की रूक्षता, झुर्रियाँ एवं कालापन मिटता है।

तीसरा प्रयोगः तेल मालिश के साथ सुबह 1 से 2 ग्राम तुलसी की जड़ तथा उतने ही सोंठ के चूर्ण को गर्म पानी के साथ निरंतर सेवन करते रहने से कोढ़ जैसे भयंकर रोग भी दूर होते हैं। यह प्रयोग त्वचा की रूक्षता एवं फटने के रोग को दूर करता है।

मुँह की खीलें (Pimples)-
पहला प्रयोगः जीरे या लौंग को पानी में अथवा जायफल को दूध में घिसकर लेप करने से खीलें मिटती हैं।

दूसरा प्रयोगः जामुन की गुठली को पानी में घिसकर लगाने से मुँहासों में लाभ होता है।

तीसरा प्रयोगः हरे पुदीने की चटनी पीसकर चेहरे पर सोते समय लेप करने से चेहरे के मुँहासे, फुन्सियाँ समाप्त हो जायेंगी।

खीलें होने पर तीखे, गर्म एवं चटपटे पदार्थों का सेवन बन्द कर दें।

बिवाई होने परः
प्रथम प्रयोगः चमेली के पत्तों के 400 मि.ली. रस को 100 ग्राम घी में मिलाकर गर्म करें। जब रस जल जाये तब उस घी को लगाने से बिवाई मिटती है।

दूसरा प्रयोगः ऐड़ी पर नींबू घिसने से बिवाई में लाभ होता है।

तीसरा प्रयोगः महुए के फल (टोली, डोरिया) का तेल लगाकर सिंकाई करने से अथवा कोकम का तेल लगाने से लाभ होता है।

होंठ फटने परः नाभि में नित्य प्रातः सरसों का तेल लगाने से होंठ नहीं फटते अपितु फटे हुए होंठ मुलायम व सुंदर हो जाते हैं। साथ ही नेत्रों की खुजली व खुश्की दूर हो जाती है।

सौन्दर्य का खजानाः
पहला प्रयोगः खुली हवा में घूमने से, कच्ची हल्दी का सेवन करने से तथा सप्ताह में एक बार 2 से 5 ग्राम त्रिफला चूर्ण को गर्म पानी के साथ लेने से सौन्दर्य बढ़ता है।

दूसरा प्रयोगः मसूर की दाल के आटे को शहद में मिलाकर लगाने से मुख सुन्दर होता है।

तीसरा प्रयोगः कोहनी की कठोरता एवं कालिमा को दूर करने के लिए रस निकले हुए आधे नींबू में आधी चम्मच शक्कर डालकर घिसें। कोहनी साफ और कोमल हो जायेगी।
 

रक्तचाप (ब्लडप्रेशर)


पहला प्रयोगः निम्न रक्तचाप (Low Blood Pressure) तथा उच्च रक्तचाप (High B.P.) वास्तव में कोई रोग नहीं है अपितु शरीर में अन्य किसी रोग के लक्षण हैं। निम्न रक्तचाप में केवल 'ॐ' का उच्चारण करने से तथा 2 से 5 ग्राम पीपरामूल का सेवन करने से एवं नींबू के नमक डाले हुए शर्बत को पीने से लाभ होता है।

उच्च रक्तचाप में 'ॐ शांति' मंत्र का जप कुछ भी खाने से पहले एवं बाद में करने से तथा बारहमासी के 11 फूल के सेवन से लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः रतवेलिया (जलपीपली) का 5 ग्राम रस दिन में एक बार पीने से उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है। यह रतवा में भी लाभदायक है।

तीसरा प्रयोगः लहसुन की कलियों को चार-पाँच दिन में धूप में सुखाकर काँच की बरनी में भरकर ऊपर से शहद डालकर रख दें। पंद्रह दिन के बाद लहसुन की एक-दो कली को एक चम्मच शहद के साथ चबाकर फ्रीज बिना का एक गिलास ठंडा दूध पीने से रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) सामान्य रहता है।

चौथा प्रयोगः 1 ग्राम सर्पगंधा नामक बूटी को 2 ग्राम बालछड़ नामक बूटी में मिलाकर दें। चन्द्रकला रस की 2-2 गोली सुबह-शाम दे। 2 चम्मच त्रिफला चूर्ण रात्रि को सोते समय दें। अगर वातप्रधान प्रकृति है तो प्रातः तिल का 20 मि.ली. तेल गर्म पानी के साथ दें। इससे उच्च रक्तचाप में लाभ होता है।

चेतावनीः हररोज बी.पी. की गोलियाँ खाते रहने से लंबे समय पर लीवर और किडनी खराब होने की संभावना है।
 

बुधवार, 7 मार्च 2012

बस होली है भई होली है ...

सत्य सनातन धर्म के समस्त अनुयायिओं एवं पुण्य भूमि भारत के समस्त प्राणिमात्र को श्री राधारमण बांके बिहारी लाल प्रभु की भक्ति के महापर्व फाग की हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएँ !

भारत में वैसे पर्व और त्योहार इतने हैं उतने कहीं नहीं है। यहां हर दिन किसी न किसी उत्सव से जुड़ा है। इनमें हमारा धर्म, हमारी सभ्यता और संस्कृति के साथ साथ आध्यात्म जुड़ा होता है। ब्रज की होली या कहीं और की, उनमें समूचा भारतीयसमाज रचा बसा है। कवि इन पर्व प्रसंगों को अपने जीवन का सहचर मानता है। कवि पद्माकर का यह छंद अनूठा और होली को रंगमय बनाने वाला है:-

एकै संग धाये नंदलाल अउ गुलाल दोउ
दृगन नये ते भरि आनंद मढ़ै नहीं।
धोय धोय हारी पद्माकर तिहारी सोय
अब तो उपजाऊ एकौ चित में चढ़ै नहीं।
कैसे करौं, कहां जाओंष् कासे कहां बावरी
कोउ तो निकारो जाओ दरद बढ़ै नहीं।
ऐरी मेरी बोर जैसे तैसे इन आंखिन में
कढ़ियोे अबीर पै अहीर तो कढ़ै नहीं।

ऐसे रंगों से सराबोर होली को खेलने में भला देवतागण भला पीछे क्यों रहे ? राधा-कृष्ण की होली के रंग ही कुछ और है। ब्रज की होली का रंग ही निराला है। अपने श्यामा श्याम के संग रंग में रंगोली बनाकर ब्रजवासी भी होली खेलने के लिये हुरियार बन जाते हैं और ब्रज की नारियां हुरियारिनेंा के रूप में साथ होते हैं और चारों ओर एक ही स्वर सुनाई देता है:-

आज बिरज में होली रे रसिया
होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया।
उड़त गुलाल लाल भए बादर
केसर रंग में बोरी रे रसिया।
बाजत ताल मृदंग झांझ ढप
और मजीरन की जोरी रे रसिया।
फेंक गुलाल हाथ पिचकारी
मारत भर भर पिचकारी रे रसिया।
इतने आये कुंवरे कन्हैया
उतसों कुंवरि किसोरी रे रसिया।
नंदग्राम के जुरे हैं सखा सब
बरसाने की गोरी रे रसिया। दौड़ मिल फाग परस्पर खेलें
कहि कहि होरी होरी रे रसिया।

इतना ही नहीं वह श्याम सखाओं को चुनौती देती है कि होली में जीतकर दिखाओ। उनमें ऐसा अद्भूत उत्साह जागृत होता है कि सब ग्वाल-बालों को अपना चेला बनाकर बदला चुकाना चाहती हैं। जिन ब्रज बालों ने अटारी में चढ़ी हुई ब्रज गोपियों को संकोची समझा था, आज वे ही होली खेलने को तैयार हैं। पेश है इस दृश्य की एक बानगी:-

होरी खेलूंगी श्याम तोते नाय हारूं
उड़त गुलाल लाल भए बादर
भर गडुआ रंग को डारूं
होरी में तोय गोरी बनाऊं लाला
पाग झगा तरी फारूं
औचक छतियन हाथ चलाये
तोरे हाथ बांधि गुलाल मारूं।

फिर क्या था ब्रज में होली की ऐसी धूम मची कि सब रंग में सराबोर हो गये। जिसका जैसा वश चला उसने वैसी ही होली खेली। श्रीकृष्ण ने भी घाघर में केसर रंग घोला है और झोली में अबीर भरा है। उड़ते गुलाल से लाल बादल सा छा गया है। रंग से भरी यमुना बह रही है। ब्रज की गलियों में राधिका होली खेल रही है, रंग से भरे ग्वाल-बाल लाल हो गये हैं:-

होरी खेलत राधे किसोरी बिरिजवा के खोरी।
केसर रंग कमोरी घोरी कान्हे अबीरन झोरी।
उड़त गुलाल भये बादर रंगवा कर जमुना बहोरी।
बिरिजवा के खोरी।
लाल लाल सब ग्वाल भये, लाल किसोर किसोरी।
भौजि गइल राधे कर सारी, कान्हर कर भींजि पिछौरी।
बिरिजवा के खोरी।

अयोध्या में श्रीराम सीता जी के संग होली खेल रहे हैं। एक ओर राम लक्ष्मण भरत और शत्रृघन हैं तो दूसरी ओर सहेलियों के संग सीता जी। केसर मिला रंग घोला गया है। दोनों ओर से रंग डाला जा रहा है। मुंह में रोरी रंग मलने पर गोरी तिनका तोड़ती लज्जा से भर गई है। झांझ, मृदंग और ढपली के बजने से चारों ओर उमंग ही उमंग है। दंवतागण आकाश से फूल बरसा रहे हैं। देखिए इस मनोरम दृश्य की एक झांकी:-

खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी
इत राम लखन भरत शत्रुहन,
उत जानकी सभ गोरी, केसर रंग घोरी।
छिरकत जुगल समाज परस्पर
मलत मुखन में रोरी, बाजत तृन तोरी।
बाजत झांझ, मिरिदंग, ढोेलि ढप
गृह गह भये चंहु ओरी, नवसात संजोरी।
साधव देव भये, सुमन सुर बरसे
जय जय मचे चंहु ओरी, मिथलापुर खोरी।

होली के दूसरे दृश्य में, रघुवर और जनक दुलारी सीता अवधपुरी में होली खेल रहे हैं। भरत, शत्रुघन, लक्ष्मण और हनुमान की अलग अलग टोली बन गयी है। पखावज का अपूर्व राग बज रहा है, प्रेम उमड़ रहा है और सभी गीत गा रहे हैं। थाली में अगर, चंदन और केसरिया रंग भर रहे हैं। सभी अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुम रख रहे हैं। माथे पर पगड़ी रंग गयी है और गलियों में केसर से कीचड़ बन गया है। इस दृश्य की एक बानगी पेश है:-

खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर जनक लली
भरत, शत्रुहन, लखन, पवनसुत, जूथ जूथ लिए भाग।
बजत अनहद ताल पखावज, उमगि उमगि अनुराग
गावत गीत भली।
भरि भरि थार, अगरवा, केसर, चंदन, केसरिया भरि थार
अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुमा, सीस रंगा लिए पाग।
केसर कीच गली।

तीसरे दृश्य में जानकी, श्रुति, कीर्ति, उर्मिला और मांडवी के साथ होली खेल रही हैं:-

जानकी होरी खेलन आई
श्रुति, कीरति, उरमिला, मांडवी, संग सहेली सुलाई
केसर रंग भरे घर केचन चंदर गंध मिलाई
पीत मधु छिरकत आयी है, संग लिये सभ भाई
कर कंचन पिचुकारी हाथ लिये चलि आयी।

जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें ? हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला, चमकती हुई आंखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भूत दृश्य की झांकी:-

आजु सदासिव खेलत होरी
जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी
वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।
तीनि आंखि सुन्दर चमकेला, सरप गले लिपटोरी
उदभूत रूप उमा जे दउरी, संग में सखी करोरी
हंसत लजत मुस्कात चनरमा सभे सीधि इकठोरी
लेई गुलाल संभु पर छिरके, रंग में उन्हुके नारी
भइल लाल सभ देह संभु के, गउरी करे ठिठोरी।

शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। देखिए इसकी एक झांकी:-

सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी
गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चंहुओरी
पीत बितान तने चंहु दिसि के, अनुपम साज सजोरी
छवि इंद्रासन सोरी।
आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी
नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी
अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भूत रूप बनोरी
हंसे गिरिजा मुंह मोरी।

औघड़ बाबा शिव जी की होली को देखकर सभी स्तुति करने लगते हैं कि हे बाबा ! हमारे नगर में निवास करो ओर हमारे दुख हरो:-

बम भोला बाबा, कहवां रंगवत पागरिया
कहवां बाबा के जाहा रंगइले और कहवां रंगइलें पागरिया
कासी बाबा के जाहा रंगइले आरे बैजनाथ पागरिया
तोहरा बयल के भ्ूासा देवो भंगिया देइबि भर गागरिया
बसे हमारी नगरिया हो बाबा, बसे हमारी नगरिया।

देवताओं की होली को देखकर मन उनकी भक्ति में रम जाता है। ईश्वर का गुणगान करो, ताली बजाओ और सभी के संग होली खेलो। चित चंचल है अपने रंगीले मन को ईश्वर की भक्ति में रंग लोकृ

रसिया रस लूटो होली में,
राम रंग पिचुकारि, भरो सुरति की झोली में।
हरि गुन गाओ, ताल बजाओ, खेलो संग हमजोली में
मन को रंग लो रंग रंगिले कोई चित चंचल चोली में
होरी के ई धूमि मची है, सिहरो भक्तन की टोली में।

गुरुवार, 1 मार्च 2012

गौ-महिमा



गाय के गोबर तथा गोमूत्र में भी गाय के दूध की तरह कई दिव्य औषधियों गुण छुपे हुए हैं, जिनसे हम सब अनभिज्ञ हैं। ये शरीर से मल, प्रकुपित दोष तथा दूषित पदार्थों को निकालकर शरीर को शुद्ध व स्वस्थ बना देते हैं।

औषधि प्रयोगः
गोमूत्र का सेवन करते समय ध्यान रखना चाहिए कि गाय देशी हो, जर्सी आदि न हो तथा गर्भवती या रोगी न हो। बछड़ी का गोमूत्र सर्वोत्तम माना जाता है। धोये हुए सफेद वस्त्र की चार या आठ तह बनाकर उससे गोमूत्र छान के बाद में ही प्रयोग करें।

मधुमेहः बछड़ी का 15-20 मि.ली. गोमूत्र प्रतिदिन सुबह खाली पेट सेवन करें। (अपनी उम्र के हिसाब से मात्रा कम या ज्यादा करें)।

गले का कैंसरः ब्रश-मंजन से पहले (बासी मुँह) 25-50 मि.ली. गोमूत्र तथा सुपारी के बराबर गाय का ताजा गोबर स्वच्छ वस्त्र से छानकर रोज सुबह चार माह तक लें। यदि गोमूत्र न मिले तो अपनी गौशाला का गोझरण अर्क लें। दी हुई मात्रा में आधा गोझरण अर्क लें। दी हुई मात्रा में आधा गोझरण अर्क आधा पानी मिला दें, पूरी मात्रा हो जायेगी।

पेटदर्दः 20 मि.ली. गोमूत्र में 1 चने जितना हल्दी चूर्ण मिलाकर सुबह शाम लेने से थोड़े ही दिनों में पेटदर्द हमेशा के लिए मिट जाता है। आहार लघु व सुपाच्य लें।

कृमिरोगः 10 मि.ली. गोमूत्र में वायविडंग के 10 दाने कूटकर मिला दें। यह मिश्रण सुबह-शाम पिलाने से चार दिन में ही पेट के कृमि नष्ट हो जाते हैं। मीठे व मैदे के पदार्थ न खायें।
शहद के घरेलू प्रयोग

सूखी खाँसी में- शहद में नींबू का रस समान मात्रा में चाटने से लाभ होता है।

उच्च रक्तचाप में- 1 से 3 लहसुन की कलियाँ शहद के साथ सेवन करना लाभदायी है।

श्वासरोग में- आधा-आधा चम्मच अदरक का रस और शहद मिलाकर चाटने से श्वास की तकलीफ में राहत मिलती है तथा हिचिकयाँ बंद हो जाती हैं।

खाँसी में- आधा चम्मच अदरक के रस या 25-30 अडूसे के पत्तों के आधे कप गुनगुने काढ़े में आधा चम्मच शहद मिला के लेने से आराम होता है। काढ़े व अदरक के रस को मिलाकर भी ले सकते हैं।

उलटी में- 1 चम्मच पुदीने के रस के साथ 1 चम्मच शहद का सेवन लाभकारी है।

सावधानीः गर्मी के दिनों में, अधिक गर्म पानी में, गर्म दूध में, अधिक धूप में शहद का प्रयोग हानिकारक है। साथ ही घी में समान मात्रा में मिलाकर प्रयोग करने पर यह विष की तरह कार्य करने लगता है। अतः इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।

केवल निधि



जिसको केवली कुम्भक सिद्ध हो जाता है, वह पूजने योग्य बन जाता है । यह योग की एक ऐसी कुंजी है कि छ: महीने के दृढ़ अभ्यास से साधक फिर वह नहीं रहता जो पहले था । उसकी मनोकामनाएँ तो पूर्ण हो ही जाती हैं, उसका पूजन करके भी लोग अपनी मनोकामना सिद्ध करने लगते हैं ।

जो साधक पूर्ण एकाग्रता से इस पुरुषार्थ को साधेगा, उसके भाग्य का तो कहना ही क्या ? उसकी व्यापकता बढ़ती जायेगी । महानता का अनुभव होगा । वह अपना पूरा जीवन बदला हुआ पायेगा ।

बहुत तो क्या, तीन ही दिनों के अभ्यास से चमत्कार घटेगा । तुम, जैसे पहले थे वैसे अब न रहोगे । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि षडविकार पर विजय प्राप्त करोगे।

काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि : “मेरे चिरजीवन और आत्मलाभ का कारण प्राणकला ही है ।”

प्राणायाम की विधि इस प्रकार है:

स्नान शौचादि से निपटकर एक स्वच्छ आसन पर पद्मासन लगाकर सीधे बैठ जाओ । मस्तक, ग्रीवा और छाती एक ही सीधी रेखा में रहें । अब दाहिने हाथ के अँगूठे से दायाँ नथुना बन्द करके बाँयें नथुने से श्वास लो । प्रणव का मानसिक जप जारी रखो । यह पूरक हुआ । अब जितने समय में श्वास लिया उससे चार गुना समय श्वास भीतर ही रोके रखो । हाथ के अँगूठे और उँगलियों से दोनों नथुने बन्द कर लो । यह आभ्यांतर कुम्भक हुआ । अंत में हाथ का अँगूठा हटाकर दायें नथुने से श्वास धीरे धीरे छोड़ो । यह रेचक हुआ । श्वास लेने में (पूरक में) जितना समय लगाओ उससे दुगुना समय श्वास छोड़ने में (रेचक में) लगाओ और चार गुना समय कुम्भक में लगाओ । पूरक कुम्भक रेचक के समय का प्रमाण इस प्रकार होगा 1:4:2

दायें नथुने से श्वास पूरा बाहर निकाल दो, खाली हो जाओ । अंगूठे और उँगलियों से दोनों नथुने बन्द कर लो । यह हुआ बहिर्कुम्भक । फिर दायें नथुने से श्वास लेकर, कुम्भक करके बाँयें नथुने से बाहर निकालो । यह हुआ एक प्राणायम ।

पूरक … कुम्भक … रेचक … कुम्भक … पूरक … कुम्भक … रेचक ।

इस समग्र प्रक्रिया के दौरान प्रणव का मानसिक जप जारी रखो ।

एक खास महत्व की बात तो यह है कि श्वास लेने से पहले गुदा के स्थान को अन्दर सिकोड़ लो यानी ऊपर खींच लो। यह है मूलबन्ध ।

अब नाभि के स्थान को भी अन्दर सिकोड़ लो । यह हुआ उड्डियान बन्ध ।

तीसरी बात यह है कि जब श्वास पूरा भर लो तब ठोंड़ी को, गले के बीच में जो खड्डा है-कंठकूप, उसमें दबा दो । इसको जालन्धर बन्ध कहते हैं।

इस त्रिबंध के साथ यदि प्राणायाम होगा तो वह पूरा लाभदायी सिद्ध होगा एवं प्राय: चमत्कारपूर्ण परिणाम दिखायेगा ।

पूरक करके अर्थात् श्वास को अंदर भरकर रोक लेना इसको आभ्यांतर कुम्भक कहते हैं । रेचक करके अर्थात् श्वास को पूर्णतया बाहर निकाल दिया गया हो, शरीर में बिलकुल श्वास न हो, तब दोनों नथुनों को बंद करके श्वास को बाहर ही रोक देना इसको बहिर्कुम्भक कहते हैं । पहले आभ्यान्तर कुम्भक और फिर बहिर्कुम्भक करना चाहिए ।

आभ्यान्तर कुम्भक जितना समय करो उससे आधा समय बहिर्कुम्भक करना चाहिए । प्राणायाम का फल है बहिर्कुम्भक । वह जितना बढ़ेगा उतना ही तुम्हारा जीवन चमकेगा । तन मन में स्फूर्ति और ताजगी बढ़ेगी । मनोराज्य न होगा ।

इस त्रिबन्धयुक्त प्राणायाम की प्रक्रिया में एक सहायक एवं अति आवश्यक बात यह है कि आँख की पलकें न गिरें । आँख की पुतली एकटक रहे । आँखें खुली रखने से शक्ति बाहर बहकर क्षीण होती है और आँखे बन्द रखने से मनोराज्य होता है । इसलिए इस प्राणायम के समय आँखे अर्द्धोन्मीलित रहें आधी खुली, आधी बन्द । वह अधिक लाभ करती है ।

एकाग्रता का दूसरा प्रयोग है जिह्वा को बीच में रखने का । जिह्वा तालू में न लगे और नीचे भी न छुए । बीच में स्थिर रहे । मन उसमें लगा रहेगा और मनोराज्य न होगा । परंतु इससे भी अर्द्धोन्मीलित नेत्र ज्यादा लाभ करते हैं ।

प्राणायाम के समय भगवान या गुरु का ध्यान भी एकाग्रता को बढ़ाने में अधिक फलदायी सिद्ध होता है । प्राणायाम के बाद त्राटक की क्रिया करने से भी एकाग्रता बढ़ती है, चंचलता कम होती है, मन शांत होता है ।

प्राणायाम करके आधा घण्टा या एक घण्टा ध्यान करो तो वह बड़ा लाभदायक सिद्ध होगा ।

एकाग्रता बड़ा तप है। रातभर के किए हुए पाप सुबह के प्राणायाम से नष्ट होते हैं । साधक निष्पाप हो जाता है । प्रसन्नता छलकने लगती है ।

जप स्वाभाविक होता रहे यह अति उत्तम है । जप के अर्थ में डूबे रहना, मंत्र का जप करते समय उसके अर्थ की भावना रखना । कभी तो जप करने के भी साक्षी बन जाओ । ‘वाणी, प्राण जप करते हैं । मैं चैतन्य, शांत, शाश्वत् हूँ ।’ खाना पीना, सोना जगना, सबके साक्षी बन जाओ । यह अभ्यास बढ़ता रहेगा तो केवली कुम्भक होगा । तुमने अगर केवली कुम्भक सिद्ध किया हो और कोई तुम्हारी पूजा करे तो उसकी भी मनोकामना पूरी होगी ।

प्राणायाम करते करते सिद्धि होने पर मन शांत हो जाता है । मन की शांति और इन्द्रियों की निश्चलता होने पर बिना किये भी कुम्भक होने लगता है । प्राण अपने आप ही बाहर या अंदर स्थिर हो जाता है और कलना का उपशम हो जाता है । यह केवल, बिना प्रयत्न के कुम्भक हो जाने पर केवली कुम्भक की स्थिति मानी गई है। केवली कुम्भक सद्गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में करना सुरक्षापूर्ण है।

मन आत्मा में लीन हो जाने पर शक्ति बढ़ती है क्योंकि उसको पूरा विश्राम मिलता है । मनोराज्य होने पर बाह्म क्रिया तो बन्द होती है लेकिन अंदर का क्रियाकलाप रुकता नहीं । इसीसे मन श्रमित होकर थक जाता है ।

ध्यान के प्रारंभिक काल में चेहरे पर सौम्यता, आँखों में तेज, चित्त में प्रसन्नता, स्वर में माधुर्य आदि प्रगट होने लगते हैं । ध्यान करनेवाले को आकाश में श्वेत त्रसरेणु (श्वेत कण) दिखते हैं । यह त्रसरेणु बड़े होते जाते हैं । जब ऐसा दिखने लगे तब समझो कि ध्यान में सच्ची प्रगति हो रही है ।

केवली कुम्भक सिद्ध करने का एक तरीका और भी है । रात्रि के समय चाँद की तरफ दृष्टि एकाग्र करके, एकटक देखते रहो । अथवा, आकाश में जितनी दूर दृष्टि जाती हो, स्थिर दृष्टि करके, अपलक नेत्र करके बैठे रहो । अडोल रहना । सिर नीचे झुकाकर खुर्राटे लेना शुरु मत करना । सजग रहकर, एकाग्रता से चाँद पर या आकाश में दूर दूर दृष्टि को स्थिर करो ।

जो योगसाधना नहीं करता वह अभागा है । योगी तो संकल्प से सृष्टि बना देता है और दूसरों को भी दिखा सकता है । चाणाक्य बड़े कूटनीतिज्ञ थे । उनका संकल्प बड़ा जोरदार था । उनके राजा के दरबार में कुमागिरि नामक एक योगी आये । उन्होंने चुनौती के उत्तर में कहा :“मैं सबको भगवान का दर्शन करा सकता हूँ ।”
राजा ने कहा : “कराइए ।”

उस योगी ने अपने संकल्पबल से सृष्टि बनाई और उसमें विराटरुप भगवान का दर्शन सब सभासदों को कराया । वहाँ चित्रलेखा नामक राजनर्तकी थी । उसने कहा : “मुझे कोई दर्शन नहीं हुए।”

योगी: “तू स्त्री है इससे तुझे दर्शन नहीं हुए ।”
तब चाणक्य ने कहा : “मुझे भी दर्शन नहीं हुए ।”

वह नर्तकी भले नाचगान करती थी फिर भी वह एक प्रतिभासंपन्न नारी थी । उसका मनोबल दृढ़ था । चाणक्य भी बड़े संकल्पवान थे । इससे इन दोनों पर योगी के संकल्प का प्रभाव नहीं पड़ा । योगबल से अपने मन की कल्पना दूसरों को दिखाई जा सकती है । मनुष्य के अलावा जड़ के ऊपर भी संकल्प का प्रभाव पड़ सकता है। खट्टे आम का पेड़ हाफुस आम दिखाई देने लगे, यह संकल्प से हो सकता है ।

मनोबल बढ़ाकर आत्मा में बैठे जाओ, आप ही ब्रह्म बन जाओ । यही संकल्पबल की आखिरी उपलब्धि है ।

निद्रा, तन्द्रा, मनोराज्य, कब्जी, स्वप्नदोष, यह सब योग के विघ्न हैं । उनको जीतने के लिए संकल्प काम देता है । योग का सबसे बड़ा विघ्न है वाणी । मौन से योग की रक्षा होती है । नियम से और रुचिपूर्वक किया हुआ योगसाधन सफलता देता है । निष्काम सेवा भी बड़ा साधन है किन्तु सतत बहिर्मुखता के कारण निष्काम सेवा भी सकाम हो जाती है । देह में जब तक आत्म सिद्धि है तब तक पूर्ण निष्काम होना असंभव है ।

हम अभी गुरुओं का कर्जा चढ़ा रहे हैं । उनके वचनों को सुनकर अगर उन पर अमल नहीं करते तो उनका समय बरबाद करना है । यह कर्जा चुकाना हमारे लिए भारी है । … लेकिन संसारी सेठ के कर्जदार होने के बजाय संतो के कर्जदार होना अच्छा है और उनके कर्जदार होने के बजाय साक्षात्कार करना श्रेष्ठ है । उपदेश सुनकर मनन, निदिध्यासन करें तो हम उस कर्जे को चुकाने के लायक होते हैं ।