रविवार, 8 अप्रैल 2012

सोमवार व्रत कथा





विधि – सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे पहर तक होता है । व्रत में फलाहार या पारण का कोई खास नियम नहीं है । किन्तु यह आवश्यक है कि दिन रात में केवल एक समय भोजन करें । सोमवार के व्रत में शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिये । सोमवार के व्रत तीन प्रकार के है – साधारण प्रति सोमवार, सौम्य प्रदोष और सोलह सोमवार विधि तीनों की एक जैसी है । शिव पूजन के पश्चात् कथा सुननी चाहिये । प्रदोष व्रत, सोलह सोमवार, प्रति सोमवार कथा तीनों की अलग अलग है जो आगे लिखी गई है ।

कथा – एक बहुत धनवान साहूकार था, जिसके घर धन आदि किसी प्रकार की कमी नहीं थी । परन्तु उसको एक दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था । वह इसी चिन्ता में रात-दि रहता था । वह पुत्र की कामना के लिये प्रति सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था । तथा सांयकाल को शिव मन्दिर में जाकर शिवजी के श्री विग्रह के सामने दीपक जलाया करता था । उसके इस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि महाराज । यह साहूकार आप का अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्घा से करता है । इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिये ।

शिवजी ने कहा – हे पार्वती । यह संसार कर्मश्रेत्र है । जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है । उसी तरह इस संसार में प्राणी जैसा कर्म करते है वैसा ही फल भोगते है । पार्वती जी ने अत्यंत आग्रह से कहा – महाराज । जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिये क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते है और उनके दुःखों को दूर करते है । यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यों करेंगें ।

पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे – हे पार्वती । इसके कोई पुत्र नहीं है इसी चिन्ता में यह अति दुःखी रहता है । इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूँ । परन्तु यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक जीवित रहेगा । इसके पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा । इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिये नहीं कर सकता । यह सब बातें साहूकर सुन रहा था । इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ । वह पहले जैसा ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा । कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें महीने उसके गर्व से एक अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई । साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जान कोई अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न ही किसी को भेद ही बताया । जब वह बालक 11 वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिये कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करुँगा । अपने पुत्र को काशी जी पढ़ने के लिये भेजूंगा । फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुला उसको बहुत-सा धन देकर कहा तुम इस बालक को काशी में पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ करते और ब्राहमणों को भोजन कराते जाओ ।

वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राहमणों को भोजन कराते जा रहे थे । रास्ते में उनको एक शहर पड़ा । उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड़का जो विवाह कराने के लिये बारात लेकर आया था वह एक आँख से काना था । उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें । इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो उसने मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये । ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और मामा से बात की तो वे राजी हो गये । फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहना तथा घोड़ी पर चढ़ा दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया । फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाये तो क्या बुराई है । ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा – यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी । मैं इसके बदले में आपको बहुत कुछ धन दूंगा तो उन्होंने स्वीकार कर लिया । विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गाय । परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजुकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आँख से काना है । मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूँ । लड़के के जाने के पश्चात् राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है । मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है । वह तो काशी जी पढ़ने गया है । राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी । उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुँच गए । वहाँ जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरु कर दिया । जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा – मामा जी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है । मामा ने कहा – अन्दर जाकर सो जाओ । लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए । जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना-पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा । अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राहमणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया । संयोगवश उसी समय शिव-पार्वती जी उधर से जा रहे थे । जब उन्होंने जोर जोर से रोने की आवाज सुनी तो पार्वती जी कहने लगी – महाराज । कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिये । जब शिव-पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लडका मुर्दा पड़ा था । पार्वती जी कहने लगी – महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था । शिवजी कहने लगे – हे पार्वती । इसकी आयु इतनी ही थी सो यह भोग चुका । तब पार्वती जी ने कहा – हे महाराज । इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प-तड़प कर मर जाएंगें । पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया । शिवजी-पार्वती कैलाश चले गये ।

वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राहमणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल पड़े । रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह हुआ था । वहां पर आकर उन्होंने यज्ञ आरंभ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की । साथ ही बहुत दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया । जब वे अपने शहर के निकट आये तो मामा ने कहा मैं पहले घर जाकर खबर कर आता हूँ । जब उस लड़के का मामा घर पहुँचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत पर बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगें । नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण दे देंगे । इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्वास नहीं आया । उसके मामा ने शपथ पूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सा धन लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे । इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता है और सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती है ।